उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
इतना तो बता दो दर-ए-गुलज़ार किधर है
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हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
हर दम पुकारते हो किनाए से क्या मियाँ
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम