हर दम पुकारते हो किनाए से क्या मियाँ
जाओ जी बैठो ओ-बे हमारा लक़ब नहीं
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क्या चमके अब फ़क़त मिरी नाले की शायरी
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ