साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
मिर्ग-छाला अपना वाँ हम ने बिछाया धूप में
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औरों की तरफ़ तू देखता है
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी