कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
नज़र कीजो मुस्लिमानाँ! ख़ुदा-रा
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सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
यादगार-ए-गुज़िश्तगाँ हैं हम
ने हाथ मिरा हाथ है ने जेब मिरी जेब
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा