सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
इन रोज़ों हिज्र की सिल ये भारी हो गई है
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आसमाँ को निशाना करते हैं
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
ऐ ज़ाहिदो बातिल से क़सम खाओ जो पहले
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है