रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
दौर-ए-दामान-ए-फ़लक इस दौर-ए-दामाँ का हरीफ़
Faiz Ahmad Faiz
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ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ