गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
हम तुम को दिखा देंगे फैलाव तबीअत का
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दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
आलम इस कार-ए-सन'अ का है तुर्फ़ा कि याँ
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं