इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आँखें बाज़ार में यूँ उस को न मटकाना था
Jaun Eliya
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ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
मुझ से इक बात किया कीजिए बस
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं