इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
पर दिल की बेकली से मैं लाचार हो गया
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निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
ज़ीं-साज़ी अगर आती मुझे मैं तो मिरी जाँ
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
इस रंग से अपने घर न जाना
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
दिल उलझता रहा ता-सुब्ह हमारा शब को
गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
खुलता है क़ुफ़्ल-ए-ऐश मिरा इस से 'मुसहफ़ी'