ज़ीं-साज़ी अगर आती मुझे मैं तो मिरी जाँ
पलकों से बनाता तिरे फ़ितराक के डोरे
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तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
मिस्र को छोड़ के आई है जो हिंदुस्ताँ में
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'