मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
क्या ज़ोर-ए-आईना है ये होवे अगर दुरुस्त
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जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
औरों की तरफ़ तू देखता है
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी