मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
बे-ख़ुदी बीच में दीवार हुआ चाहती है
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इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार