मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
कि ये ग़रीब है इस का सलाम क्यूँ लीजे
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की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा