अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
घर पहुँचें हम तमाम भी हो ये सफ़र कहीं
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गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
इन आँखों से आब कुछ न निकला
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
है माह कि आफ़्ताब क्या है
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल