है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
घर तेरे कुश्तगाँ की रूहें न आइयाँ हों
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इन आँखों से आब कुछ न निकला
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए