हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
जो थक गया हो बैठ के मंज़िल के सामने
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Rahat Indori
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Jaun Eliya
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कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
आशिक़ कहें हैं जिन को वो बे-नंग लोग हैं
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
इन आँखों से आब कुछ न निकला
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा