कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
सफ़र करते हैं जब रंज-ए-सफ़र मालूम होता है
Habib Jalib
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Rahat Indori
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Mir Taqi Mir
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बाग़ था उस में आशियाँ भी था
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
ऐ ज़ाहिदो बातिल से क़सम खाओ जो पहले
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू