तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
हम होवें फिर कहाँ के अगर हम में तू न हो
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जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
होवे न अज़ाब उस पे कभी जिस के पस-ए-मर्ग
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं