तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
इलाही चोट किसी दिन तिरे भी दिल को लगे
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आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
उस ने गाली मुझे दी हो के इताब-आलूदा
ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई