जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
ख़लते में जाता रहा हुस्न-ए-ज़बान-ए-रेख़्ता
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गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
इन आँखों से आब कुछ न निकला
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
'मीर' क्या चीज़ है 'सौदा' क्या है
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
इस रंग से अपने घर न जाना