अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
सौगंद में खाता नहीं वल्लाह किसी की
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वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
नसीबों से कोई गर मिल गया है
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी