क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
क्या क्या शिकम ओ नाफ़ नज़र आते हैं हम को
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उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
खा लेते हैं ग़ुस्से में तलवार कटारी क्या
दिल में मुर्ग़ान-ए-चमन के तो गुमाँ और ही है