क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए
मस्स-ए-हवा से जिस को होता है क़शअरीरा
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झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो