किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ग़ुंचे आते हैं नज़र सूरत-ए-पैकाँ मुझ को
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ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
एक नाले पे है मआश अपनी
अल्लाह-रे काफ़िरी तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम की
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं