ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
इश्क़ ने शक्लें ये सब दिखलाइयाँ
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की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज