देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
ब-जुज़-उश्शाक़ है मय सब को बराबर पहुँचे
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वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ