ढै जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
इस ख़ाना-ख़राबी ने हवा-दार तो रक्खा
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सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद