धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
ख़ंजर से ख़िज़ाब दूर कीजे
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बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
दिल चुराना ये काम है तेरा
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
मेहनत पे टुक नज़र कर सूरत गर अज़ल ने
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना