रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
गले पड़ी जो हुई पाँव से जुदा ज़ंजीर
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ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने