रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
वो मुझ पे हुआ गर्म तो मैं उस पे हुआ गर्म
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तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
रात के रहने का न डर कीजिए
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
न आया शाम भी घर फिर के अपने
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ
ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा