सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
जो मुश्किल-ए-मजनूँ है सो है मुश्किल-ए-लैला
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माशूक़ा-ए-गुल नक़ाब में है
इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में