गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
'मुसहफ़ी' फिर भी 'मीर' 'मीर' ही है
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क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
आसमाँ को निशाना करते हैं
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
गिर्या दिल को न सू-ए-चश्म बहाओ
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले