अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
'मीर' मरहूम था अजब कोई
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जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ