गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
कि हम को जा न मिली पा दराज़ करने को
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Habib Jalib
Mir Taqi Mir
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धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
मुझ को पामाल कर गया है वही
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा