ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
मुझ को भी उसी जगह तू ले चल
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किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
आसमाँ को निशाना करते हैं
ऐ 'मुसहफ़ी' तुर्बत का मिरी नाम न लेना
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी