किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
तिरे हाथों से आजिज़ हूँ नहीं तो मैं निकल जाता
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बातों में लगाए ही मुझे रखता है ज़ालिम
हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
ने हाथ मिरा हाथ है ने जेब मिरी जेब
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला