घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
और जो हम-साए हैं आवाज़ में मर जाते हैं
Allama Iqbal
Gulzar
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Jaun Eliya
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Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Parveen Shakir
Habib Jalib
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शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
एक नाले पे है मआश अपनी
उस की पड़ी न आँख ख़त-ओ-ख़ाल पर तिरे
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
यादगार-ए-गुज़िश्तगाँ हैं हम
हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दिनों चीज़
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने