सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
जब बाग़ में बातें तिरी ज़ुल्फ़ों की चलाईं
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दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
देख उस को इक आह हम ने कर ली
जो है सो तुम्हारा ही तरफ़-दार है साहिब
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने