या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम
खुलवाए अपने बंद-ए-क़बा मेरे हाथ से
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शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा