शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
ये वरक़ तू ने न ऐ गर्दिश-ए-अय्याम उल्टा
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मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
हमें नित असीर-ए-बला चाहता है
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
बहस उस की मेरी वक़्त-ए-मुलाक़ात बढ़ गई
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल