शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
लिखा जा के मैं उस के दीवार-ओ-दर पर
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क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
दिल चुराना ये काम है तेरा
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
इस मर्ग को कब नहीं मैं समझा
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
कब लग सके जफ़ा को उस की वफ़ा-ए-आलम
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं