ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
कहीं कुछ है कहीं कुछ है कहीं कुछ
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दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
जल्वा-गर उस का सरापा है बदन आइने में