'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
रख दिया ताज़ा गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ के तले
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रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
साअत-ए-ईसवियाँ है कि मिरा दिल जिस में
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ