रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
एक तह-गुलाबी दी हुई है पैरहन के बीच
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क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
ग़ुस्से को जाने दीजे न तेवरी चढ़ाइए
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
जलता है जिगर तो चश्म नम है
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
फ़लक की ख़बर कब है ना-शाइरों को
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात