मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
आईना बीच में किस वास्ते दीवार है आज
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दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए