मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
अल्लाह-रे रसाई मिरी पर्वाज़ तो देखो
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बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब