दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
शब को बिस्तर पर पड़े रहते हैं मन मारे हुए
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नहीं करती असर फ़रियाद मेरी
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
बहुत दिलों को सताया है तू ने ऐ ज़ालिम
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
अहल-ए-दिल गर जहाँ से उठता है
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब