कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
साथ तस्बीह के दानों के तो ज़ुन्नार भी है
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'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
काम में अपने ज़ुहूर-ए-हक़ है आप
शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा