वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
याँ फ़ाख़्ता हक़-गो है फ़क़ीरों के क़फ़स में
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की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
फ़िक्र-ए-सुख़न तलाश-ए-मआश ओ ख़याल-ए-यार
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो