ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
तुम्हारी मीरज़ाई हो चुकी बस
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किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
इन आँखों से आब कुछ न निकला
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
दिल चुराना ये काम है तेरा
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप